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गोरैया की तलाश में

कहना है
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गोरैया

पिछले कई महीने से एक अदद गोरैया की तलाश में हूँ,लेकिन कहीं दिखती नहीं.बचपन के दिनों में अक्सर गोरैया की चहचहाहट से सुबह की नींद खुल जाती थी.सुबह उठते ही आँगन में इधर-उधर फुदकती, गिरे अनाजों को चुनती गोरैया दिख जाती थी.

गांवों,घरों के आँगन में यह छोटी सी चिड़िया सहज ही नजर आ जाती थी.प्रायः फूस के घरों में गोरैया का घोंसला होता था.शहरों के आस-पास के ग्रामीण क्षेत्रों में यह छोटी सी चिड़िया समूह बना कर रहती थी.यह लोगों की जिंदगी का अभिन्न हिस्सा थी.बचपन के दिनों में हमलोगों ने कितनी ही बार गोरैया के घोंसलों में हाथ डाला होगा और छोटी सी,छुई-मुई सी गोरैया के बच्चों को हथेली के बीचोबीच रख कर उत्सुकता से निहारा होगा.आँगन में सूखने के लिए रखे अनाजों पर मंडराती गोरैया,बरबस ही गृहिणी का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लेती थी.घर की गृहिणी से उसका अटूट नाता होता था.कारण,उसका दाना-पानी गृहिणियों के भरोसे ही था.पर अब ऐसा नहीं रहा.हर तरफ नजर आने वाली गोरैया अब इक्का-दुक्का ही नजर आती है.

लोकमान्यताओं के अनुसार जिन घरों में गोरैये के घोंसले होते थे वहां लक्ष्मी का वास मन जाता था.पर अब स्थिति बिलकुल बदल चुकी है.

गोरैया की संख्या में लगातार कमी आने का प्रमुख कारण बढ़ता शहरीकरण है.इसने गोरैया का आशियाना छीन लिया है.पहले गांवों में फूस के घर होते थे,जिनके तिनके से वह घोंसला बनाकर रहती थी.पर अब कंक्रीट के बढ़ते मकानों ने गोरैया का चमन उजाड़ दिया है.गोरैया की संख्या में कमी आने की दूसरी प्रमुख वजह उसके भोजन में आई कमी भी है.पहले गांवों के आँगन में अनाज बिखरे मिलते थे,पर अब इन्हें बिखरे अनाज भी नहीं मिलते.

गोरैया की संख्या में आई लगातार कमी की एक वजह भवन निर्माण शैली में आया परिवर्तन भी है.पहले पर्शियन शैली में भवनों का निर्माण होता था.उसमे मुंडेर रहा करती थी.यहाँ गोरैया आराम से घोंसला बनाकर रहती थी.अब पर्शियन शैली की जगह आधुनिक शैली के मकान बनने लगे हैं.यह सपाट होती है एवं इसमें मुंडेर नहीं होते. इसमें गोरैया के घोंसले के लिए कोई गुंजाईश नहीं होती.

फिर जो पर्शियन शैली के मकान थे अब उसमें से ज्यादातर के भग्नावशेष ही बचे हैं
खेतों में कीटनाशकों का बढ़ता प्रयोग और मोबाईल टावरों से निकलनेवाली तरंगों ने भी गोरैया के मृत्युदर में भारी वृद्धि की है.
गोरैया पक्षी के विशेषज्ञ डेनिस समरर्स-स्मिथ शीशा रहित पेट्रोल के बढ़ते चलन को भी गोरैया की संख्या में कमी आने का कारण मानते हैं.सामान्यतया शीशा रहित पेट्रोल को वातावरण के अनुकूल माना जाता है. इसमे MTBE (मिथाईल टरटीयरी बुटाईल एथर) एक प्रमुख कारक है.शीशा रहित पेट्रोल से चलने वाले वाहनों से निकलने वाले धुएं से छोटे-छोटे कीड़े,मकोड़े मर जाते हैं.
ये छोटे-छोटे कीड़े,मकोड़े इस तरह की पक्षियों के भोजन होते हैं.हालाँकि वयस्क गोरैया इन कीड़े,मकोड़े के बगैर भी जिन्दा रह सकती है,लेकिन अपने नवजात बच्चों को खिलाने के लिए इसकी जरूरत पड़ती है.
मनुष्यों की जीवन शैली में बदलाव भी एक प्रमुख कारण है.
यह बात दीगर है की हर साल 22 मार्च को दुनियां भर में अंतर्राष्ट्रीय गोरैया दिवस मनाकर हम इस नायाब पक्षी को याद कर लेते हैं,लेकिन हकीकत यही है की घर के मुंडेर और खिड़कियों पर चहचहाकर जीवन में रंग भरने वाली इस चिड़िया का दर्शन कुछ वर्षों के बाद दुर्लभ होगा.

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