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कहते हैं कि बचपन की यादें कभी जाती नहीं हैं. वे ताउम्र आपके साथ रहती हैं. आज भी कभी बचपन की यादों को कुरेदने की कोशिश करता हूँ तो स्मृतिपटल पर एक के बाद एक यादों के कई दरवाजे खुलते चले जाते हैं.
1973-76 में हमलोग बिहार के समस्तीपुर जिले के सिंघिया प्रखंड में रहते थे.पिताजी उस प्रखंड में प्रखंड विकास पदाधिकारी के रूप में स्थानांतरित होकर आये थे.
हम भाई बहनों का तीन साल वहीँ बीता.विकास की दृष्टि से एक दम पिछड़ा हुआ प्रखंड था.रहने के लिए जो किराये का आवास मिला था वह फूस और खपरैल का दो कमरों का छोटा सा मकान था.साल भर में छह महीने हम उस आवास में रहते और छह महीने अंग्रेजों के बनाये डाकबंगले में.वह पूरी तरह बाढ़ ग्रस्त इलाका था.बरसात आते ही बाढ़ आ जाती और हमारे कमरे में कमर भर पानी भर जाता.डाकबंगला उंचाई पर था,इस लिए बाढ़ आते ही हमलोग डाकबंगले में शिफ्ट हो जाते और छह महीने वहीँ रहते.
बाजार तक जाने के लिए नाव का सहारा लेना पड़ता.बिना नाव के आवागमन संभव नहीं था.उन दिनों पिताजी अहले सुबह नाव से बाढ़ ग्रस्त क्षेत्रों में सहायता कार्य के लिए पूरी टीम के साथ निकलते और देर रात लौटते थे.हम लोगों का स्कूल जाना बंद हो जाता.घर पर ही पढ़ाई लिखाई होती.’करेह’ नदी का प्रकोप हर साल होता था.हम लोगों के मकान मालिक के पिता पूर्व के जमींदार थे.उनका बड़ा सा आवास था.
जिसमे कई हाथी,घोड़े,मोर आदि पाल रखे थे.हम उन्हें बाबा कहते.उन्हें बच्चों से बहुत लगाव था.अक्सर हम उनके आवास पहुँच जाते और कौतुहल वश उनके पालतू जानवरों को देखा करते.वे हमलोगों को अपने नाव से झिज्जिर खेलने ले जाया करते थे.
बाढ़ के दिनों में जिला मुख्यालय पहुँचने के लिए दिन भर नाव का सफ़र कर समीपवर्ती रेलवे स्टेशन पहुंचना पड़ता था.
सामान्य दिनों में भी आवागमन काफी कठिन था.पहले उफनाती ‘करेह’ नदी को एक बड़ी नाव से,जिस पर जीप चढ़ाया जाता,पार करना पड़ता था फिर आगे बूढ़ी गंडक को बड़ी नाव से जीप समेत पार करना पड़ता था.
उसके बाद कच्ची पक्की सड़कों से होते हुए जिला मुख्यालय समस्तीपुर जाना होता था.हम लोगों को पढ़ाने के लिए दुर्गा बाबू आते थे, जिन्होंने हमें रामायण और महाभारत के अनेक किस्सों को सुनकर अपना मुरीद बना लिया था.हम उत्सुकता से उनकी प्रतीक्षा करते और आते ही कोई नई कहानी सुनाने की फरमाईश कर डालते.
उन्हीं दिनों एक कविजी भी आया करते थे.धोती, कुरता पहने,उन्नत ललाट और गौर वर्ण के.बाद में पता चला कि वे कवि हैं.हम लोगों को उन्होंने कई कवितायेँ लिख कर दी थीं.उनका पूरा नाम तो याद नहीं,पर कवि ‘शंकर’ था.जब भी आते एक पर्ची पर कविता कि चार लाईनें लिख कर भेजते जिससे पता चल जाता कि कविजी आये हैं. उन्होंने हमें अपनी कविताओं कि एक पुस्तक भेंट की थी, जिसमे अपना परिचय एक कविता के रूप में दिया था.वह पुस्तक तो अब उपलब्ध नहीं है,पर उसमें प्रस्तुत उनके परिचय वाली कविता की यादें आज भी ताजा हैं.
एक बानगी देखिये…………
क्या बतलाऊँ अपना परिचय
मैं हूँ जलता अंगार एक
मैं हूँ चिर शोषित,चिर संतापित
मुझमें न रक्त,मुझमें न मांस
चलती कराह या घुटघुट कर
मेरे प्राणों की साँस साँस
जलता हाँ तिल तिल जलता हूँ
अपनी ही अंतर्ज्वाला में
जाने अधरों से लगा मस्त
अमृत या कि विष प्याला में.
वर्ष 1976 में पिताजी का ट्रांसफर उस प्रखंड से हो गया.फिर कभी वहां जाना नहीं हो सका और न ही वहां के किसी परिचित से मुलाकात ही हुई.अब तो शायद करेह नदी पर पुल भी बन गया होगा और बाढ़ से बचाव के लिए बाँध भी बन गया होगा,सड़कें भी पक्की हो गई होगी.रहने के लिए कई पक्के मकान बन गए होंगे.पर वहां बिताये बचपन के दिन आज भी नहीं भूलते.
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