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बदलता सिनेमा,बदलते लोग

कहना है
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फ़िल्में समाज का आईना(दर्पण) होती हैं ,ऐसा मानने वालों की कोई कमी नहीं है. इसकी वजहें भी हैं.प्रख्यात
फिल्मकारों ने शुरुआत से ही अपनी फिल्मों का ताना-बाना इस तरह बुना कि उनमें समाज की किसी न किसी सामाजिक समस्या को स्पष्ट रूप रेखांकित किया जा सकता था.

विधवा पुनर्विवाह,अछूत,दहेज़,स्त्रियों की समस्याओं ,बेटे-बेटी में भेदभाव,डाकुओं की समस्याओं को लेकर कई फ़िल्में बनाई गई, जिसे लोगों ने काफी पसंद भी किया.वी.शांताराम,विमल रॉय इनके अगुआ थे.उनकी फिल्मों में साफ़ सन्देश दिखाई देता था.वी.शांताराम की ‘दो आँखे बारह हाथ ‘ खुले बंदीगृह की समस्या से संबंधित थी.इस तरह का कंसेप्ट उस समय नया था.इसके अलावा इसी फिल्म में नायिका संध्या द्वारा ड्रम की तरह बजने वाली जिस छोटी सी गाड़ी का प्रयोग किया गया था,वह अनूठा था. इस तरह की बजने वाली गाड़ी ग्रामीण क्षेत्रों के मेलों में खूब बिकती थी. पर अब तो वह प्रतीक भर रह गए हैं.इसी तरह के अन्य खिलौने अब ग्रामीण क्षेत्रों में भी नहीं मिलते. अब तरह तरह की बंदूकें,मोबाइल की तरह खिलौने आदि मिलते हैं.

कच्चे बांसों से बनाई गई बांसुरी,बड़े डंडों में चिपका कर रंग बिरंगी लाई ,हवा मिठाई बेचने वाले अब नहीं आते.लेकिन चाट और फास्ट फ़ूड बेचने वाले जरुर दिखाई देते हैं.पुरानी फिल्मों में इन प्रतीकों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है.आजकल बनने वाली फ़िल्में गाली गलौज से भरी,बेतुके संवाद और बेतुकी कहानी से होती हैं.यह सही हैकि उत्तर प्रदेश और बिहार के ग्रामीण अंचलों में आज भी कई व्यक्ति बातचीत की शुरुआत ही गाली से करते हैं,लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि फिल्मों में भी इसी तरह के दृश्य उत्पन्न किये जाएँ.फिल्मों का दायरा व्यापक होता है और इसका असर भी लोगों पर पड़ता है.

आमिर खान निर्मित फिल्म ‘डेल्ही बेली’ , बालाजी टेलीफिल्म्स द्वारा निर्मित ‘डर्टी पिक्चर’ आदि जिसमे गालियों का भरपूर इस्तेमाल हुआ है.लगान,तारे जमीं पर,रंग दे वसंती,थ्री इडियट्स जैसी फिल्मों के माध्यम से आमिर खान ने फिल्म विषयों को सामाजिक समस्याओं के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया.इन फिल्मों के विषयों की पृष्ठभूमि में वे समस्याएँ थी जिनसे हम अक्सर दो चार होते हैं.

फिल्म निर्देशन एक महत्वपूर्ण जिम्मेदारी है.फिल्म निर्माता,निर्देशक,लेखक आदि समाज को स्वस्थ दिशा प्रदान करते हैं.यह दिशा प्रभावपूर्ण एवं सकारात्मक परिणाम प्रस्तुत करने में समर्थ होना चाहिए. निर्माता,निर्देशक यह कहकर नहीं बच सकते कि लोग जो देखना चाहते हैं वही दिखाते हैं.

यह सही है कि लोगों की सोच बदल चुकी है और लोग अब भी फिल्मों को मनोरंजन का ही साधन मानते हैं,पर ऐसी फिल्मों को बनाने का कोई तुक नहीं जिसे लोग अपने परिवार के सदस्यों के साथ बैठकर नहीं देख सकें.मल्टीप्लेक्स को ध्यान में रखकर बनाई गई फ़िल्में इसी कोटि की होती हैं.लेकिन अपने देश के कितने शहरों में मल्टीप्लेक्स हैं.अधिकांशतः एकल सिनेमाघरों में दिखाई जाती हैं.सो इस तरह की बहानेबाजी से नहीं बचा जा सकता.

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