Menu
blogid : 7781 postid : 81

कोसी की परती परिकथा

कहना है
कहना है
  • 36 Posts
  • 813 Comments

कहते हैं कि केवल धरती ही बंजर नहीं होती,कभी-कभी आदमी का मन भी बंजर हो जाता है. उसमें उल्लास,उमंग के कोई फूल नहीं खिलते.
‘रेणु’ के ‘परती परिकथा’ को पढ़ते समय ऐसा ही आभास हुआ.कोसी के अंचलों में बरसों रहा हूँ.पिताजी के राज्य प्रशासनिक सेवा में पदस्थापन के दौरान कोसी के विभिन्न क्षेत्रों में घूमा हूँ.तब ऎसी अनुभूति नहीं हुई क्योंकि तब ‘रेणु’ की ‘परती परिकथा’ जो नहीं पढ़ी थी.तब कटिहार से फारबिसगंज होते हुए जोगबनी(भारतीय सीमा का अंतिम स्टेशन) और नेपाल के सीमावर्ती शहर विराटनगर की दर्जनों बार यात्राएँ की थी. पूर्णिया से सवारी गाड़ी के आगे बढ़ते ही ‘रेणु’ की परती परिकथा साकार होने लगती है.सिमराहा के बाद ‘औराही हिंगना’ छोटा सा हाल्ट है,जो अब रेणु ग्राम हो गया है.

सवारी गाड़ी की खिड़की से झांकते ही कास के घने जंगल(एक प्रकार का जंगली घास) और उसी से बनी बांस और बत्ती की झोपड़ियाँ दिखाई देने लगती हैं.क्या संपन्न और क्या विपन्न सभी के घरों के दरवाजे पर कास की एक झोपड़ी तो अवश्य ही दिखाई देती है.खेतों की पगडंडियों से आते-जाते लोग बाग़ बरक्स ध्यान खींच लेते हैं.रेणु ने सिमराहा से फारबिसगंज(समीपवर्ती सबसे बड़ा शहर)तक की जो तस्वीर खींची थी, वे अब भी मौजूं हैं.कोसी की विनाश लीला से संतापित यह क्षेत्र हमेशा से ही उपेक्षित रहा है.कोसी को यूँ ही ‘बिहार का शोक’ नहीं कहा जाता.

इसका दंश झेलने वाले व्यक्तियों से चर्चा करते ही चेहरे पर उभरे भावों को साफ़ पढ़ा जा सकता है. पहली बार कटिहार और पूर्णिया की धरती पर पैर रखते ही हिदायत मिली थी कि यहाँ का पानी काला है. दांत काले हो जाते हैं और कपड़ों में भी कालापन आ जाता है.कमोबेश इसी सच्चाई से रूबरू होता रहा.

कई बार किसी कथा,कहानी,उपन्यास को पढ़ने के बाद महसूस होता है कि कहानी कुछ अधूरी रह गई.इसके आगे क्या होता. कई तरह के तर्क-वितर्क मन में उठने लगते है.क्या उपन्यासकार ने जानबूझकर कथानक को अधूरा छोड़ा.मन सोचने लगता है कि अच्छा होता यदि कहानी आगे बढ़ती.
अमर कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ की ‘परती परिकथा’ को दुबारा पढ़ते समय ऐसा ही लगा.लगा कि कहानी कुछ अधूरी रह गई है.जमींदारी उन्मूलन के बाद का समाज,कोसी के अंचलों में व्याप्त गढ़ी-अनगढ़ी कहानियां,ग्राम्य गीत,लोक-संगीत,लोक गाथाओं की बूझ – अबूझ पहेलियाँ,तकनीकी का सधः प्रवेश.सब कुछ मिलकर ऐसा लगता है मानो सब कुछ आँखों के सामने चलचित्र की तरह घूम रहा हो.
ताजमनि का क्या हुआ? जितेन्द्र नाथ मिश्र एवं ईरावती का क्या हुआ? जितेन्द्र ने बचपन में ही विदेश ले जाई गयी बहन दुलारी दाय का पता लगाया या नहीं,गाँव के लोगों में जो रिक्तता की भावना थीं,वह दूर हुई या नहीं .परानपुर के अधूरे इतिहास,गीतावास कोठी की,मेम माँ की लिखी-अलिखी अधूरी गाथा का जितेन्द्र के जीवन पर क्या प्रभाव पड़ता है आदि कुछ सवाल अनुत्तरित ही रह जाते हैं. काश! कहानी कुछ और आगे बढ़ती तो मन तृप्त हो जाता.

अमर कथा शिल्पी ‘फणीश्वर नाथ रेणु’ के अन्य उपन्यास ‘मैला आँचल’, ‘तीसरी कसम’ को पढ़ते समय ऐसा नहीं लगा.कथाकार जानबूझकर कथानक को पूर्णविराम दे देता है,कथानक को आगे नहीं बढ़ता.पाठकों के विवेक पर छोड़ देता है.रेणु की ‘परती परिकथा’ परानपुर इस्टेट,फारबिसगंज,पूर्णिया,कटिहार,भागलपुर,पटना आदि के आस-पास घूमती है.रेणु के कथानक को कहने की कला,नेपाली,बांग्ला,मैथिली,अंगिका में संवाद सब कुछ अद्वितीय हैं. ग्रामीण समाज में प्रचलित अन्धविश्वास,कुरीतियाँ रेत की तरह बिखरे पड़े मिलते हैं.स्थानीय राजनीति,गुटबाजी,समाज में परिवर्तन की बहती बयार, सब कुछ आँखों के सामने घटित होता प्रतीत होता है.

Read Comments

    Post a comment

    Leave a Reply

    Your email address will not be published.

    CAPTCHA
    Refresh