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शब्द अशेष

कहना है
कहना है
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pranay giit
इन प्रणय के कोरे कागज पर
कुछ शब्द ढले नयनों से
आहत मोती के मनकों को
चुग डालो प्रिय अंखियों से
    कितने चित्र रचे थे मैंने
    खुली हथेली पर
    कितने छंद उकेरे तुमने
    नेह पहेली पर
अवगुंठन खुला लाज का
बांच गए पोथी मन मितवा
जीत गई पिछली मनुहारें
खिले फूल मोती के बिरवा
    भोर गुलाबी सप्त किरण से
    मन पर तुम छाए
    जैसे हवा व्यतीत क्षणों को
    बीन – बीन लाए
बरसों बाद लगा है जैसे
सोंधी गंध बसी हों मन में
मीलों लम्बे सफ़र लांघकर
उम्र हँसी हों मन दर्पण में
    नदिया की लहरों से पुलकित
    साँझ ढले तुम आए
    लगा कि मौसम ने खुशबू के
    छंद नए गाए.

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