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कौड़ी के मोल

कहना है
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koudi1

प्रायः हम बोलचाल में कौड़ी से संबंधित मुहावरे का प्रयोग करते हैं.जैसे-‘दो कौड़ी का आदमी’ या ‘कौड़ियों के मोल’ आदि..

दूर दराज के इलाकों में आज भी कौड़ियों का मुद्रा के रूप में चलन दिख जाता है.कौड़ी एक मजबूत मुद्रा है.इसका सबसे बड़ा प्रमाण और क्या हो सकता है कि कौड़ी के स्थान पर जब धातु के सिक्के चले तो कौड़ी का अस्तित्व समाप्त नहीं हो गया बल्कि उसके साथ-साथ चलता रहा.१९३० तक दिल्ली के ग्रामीण क्षेत्रों में एक पैसा सोलह कौड़ियों के बराबर था.बंगाल में एक रुपया ३८४० कौड़ियों के बराबर होता था.आज से तीन चार दशक पूर्व ६४ कौड़ियाँ एक पैसे के बराबर होती थी.बर्मा में ६४०० कौड़ियाँ एक टिक्कल के बराबर होती थी.चीन में धातु के सिक्के कौड़ी की शक्ल के बनते थे.१३वी शताब्दी में मार्कोपोलो ने चीन के उन्नन में ऎसी ही कौड़ियों का चलन पाया था.जिस प्रकार धातु की मुद्रा में उतार चढ़ाव आता है ,उसी प्रकार कौड़ी की मुद्रा में भी उतार चढ़ाव आता था और व्यापारी इसका पूरा पूरा लाभ उठाते थे.व्यापारी प्रशांत महासागर के टापुओं से सस्ती दरों पर कौड़ियाँ खरीदते और अफ्रीका में जाकर महंगे दाम में बेचते थे.

कौड़ी को ही मुद्रा के रूप में क्यों चुना गया,शायद इसकी वजह यह है की कौड़ी में वे सारे गुण विद्यमान हैं, जो एक अच्छी मुद्रा में होने चाहिए.इसे आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाया जा सकता है.ये नष्ट नहीं होती.गिनने में आसानी रहती है.कोई नकली कौड़ी नहीं बना सकता.फिर कौड़ी अपनी एक खास पहचान भी रखती है.

लेकिन सब प्रकार की कौड़ियों का प्रयोग मुद्रा के रूप में नहीं किया जाता.विशेषज्ञों के अनुसार विश्व में १६५ किस्म की कौड़ियाँ मौजूद हैं.उनमें से केवल दो प्रकार की कौड़ियाँ ही मुद्रा के रूप में चलती थीं.पहली मनी कौड़ी(साइप्रिया मोनेटा) और दूसरी रिंग कौड़ी(साइप्रिया अनेलस).ये दोनों प्रकार की कौड़ियाँ छोटी हैं,चिकनी हैं और उनके किनारे मोटे हैं.मनी कौड़ी पीली या हलके पीले रंग की होती हैं.लम्बाई लगभग एक इंच के बराबर होती है.भारत एवं एशिया के कुछ भागों में इन्हीं कौड़ियों का चलन था.रिंग कौड़ी का रंग ज्यादा सफ़ेद नहीं होता.इसकी पीठ पर नारंगी रंग का गोला होता है.इसी कारण इसका नाम रिंग कौड़ी पड़ा.इस रिंग कौड़ी का चलन एशियाटिक द्वीप में अधिक था.

अफ्रीका में दोनों प्रकार की कौड़ियों का चलन था.आज भी अफ्रीका के कुछ भागों में कौड़ी की मुद्रा मौजूद है.अफ्रीका में कौड़ियों का चलन सबसे पहले अरबी व्यापारियों ने फैलाया.बाद में यूरोप के व्यापारियों ने इसका लाभ उठाया.डच,पुर्तगीज,फ्रेंच एवं अंग्रेजों ने अफ्रीका में टनों कौड़ियों का आयात कराया.वे इन कौड़ियों से गुलामों की खरीद करते थे.इसके अतिरिक्त हाथी दांत एवं गोले का तेल भी इन्ही कौड़ियों से खरीदा जाता था.सारा व्यापर पहले समुद्र तट तक सीमित था,लेकिन धीरे-धीरे व्यापारी अंदरूनी भाग में भी पहुँच गए और व्यापारियों के साथ कौड़ियाँ भी.अफ्रीका के ईव जनजाति के लोग मुर्दों को कौड़ियों से भी ढंकते थे ,ताकि अगर मृतक पर किसी का कर्ज हो तो वह उन कौड़ियों में से उठाकर वसूल कर लें.

मनी कौड़ी और रिंग कौड़ी प्रशांत महासागर के गरम एवं छिछले क्षेत्र में बहुतायत से पायी जाती हैं.मालदीव तो कौड़ियाँ का द्वीप ही कहलाता था.नवीं शताब्दी में सुलेमान नामक अरबी व्यापारी और दसवीं में बगदाद के एक मसूदी ने कौड़ियों को इकठ्ठा करने का बड़ा दिलचस्प वर्णन किया है.उनके अनुसार नारियल के पत्तों से कौड़ियाँ इकठ्ठा की जाती थीं.विश्व भर के व्यापारी यहाँ आते और माल के बदले कौड़ियाँ ले जाते.एक अनुमान के अनुसार यहाँ से हर वर्ष तीस-चालीस जहाज कौड़ियों में भरकर ले जाते थे.

यदि मालदीव कौड़ियों को इकठ्ठा करने का केंद्र था तो भारत उनके वितरण का केंद्र था.ईस्ट इण्डिया कम्पनी के ज़माने में भारत में हर वर्ष चालीस हजार पौंड के मूल्य की कौड़ियों का आयात किया जाता था.आज भारत में कौड़ियों का चलन नहीं रहा लेकिन आज भी वह समृद्धि एवं लक्ष्मी का प्रतीक बन कर लोगों के ह्रदय में प्रतिष्ठित है.जब जब लक्ष्मी की पूजा होती है,कौड़ी सामने अवश्य होती है.बंगाल में लक्ष्मी पूजा के अवसर पर एक ऎसी टोकरी को पूजा जाता है जो सब और से कौड़ियों से सजी होती है. इस टोकरी में माला,धागा,कंघा,शीशा,सिन्दूर, लोहे का कड़ा और न जाने क्या होता है.इस टोकरी को ‘लोखी झापा’ या ‘लक्ष्मी की टोकरी’ कहते हैं.

उत्तर प्रदेश की धार्मिक नगरी वाराणसी में एक मंदिर ऐसा भी है जहां प्रसाद के रूप में कौड़ी चढती है और कौड़ी ही मिलती है। इसे कौड़ी माता का मन्दिर कहा जाता है। यही नहीं कौड़ी माता का स्नान भी कौड़ी से ही कराया जाता है। अगर उन्हें प्रसन्न करना है तो रुपयों से कौडी खरीदें और उनके चरणों में समर्पित करके आर्शीवाद के भागी बनें।

मंदिर में ही स्थित एक छोटी सी दुकान से ही श्रद्धालु कौड़ी खरीद सकते हैं। पास ही में स्थित दुर्गा, मानस त्रिदेव एवं संकट मोचन मंदिरों में श्रद्धालुओं की काफी भीड़ रहती है लेकिन यहां पर काफी शान्ति दिखाई देती है। इक्‍का-दुक्‍का लोग ही यहां दर्शन करने के लिए आते हैं।

चूंकि यह दक्षिण की देवी है इसलिए दक्षिण भारत से आनेवाले श्रद्धालु ही ज्यादातर यहां पर दर्शन के लिए आते हैं। बाहरी दर्शनार्थी कौड़ी लेकर आते हैंऔर चढ़ाते हैं बदले में प्रसाद स्वरूप उन्हें एक कौड़ी दी जाती है जिसे श्रद्धालु सुख समृद्धि का प्रतीक मानकर अपने घर के पूजा के स्थान पर रखते हैं। कौड़ी माता तमिल भाषा में माता सोइउम्मा तथा तेलगू में गवल अम्मा के नाम से जानी जाती है।

दीपावली के अवसर पर कौड़ी को किसी एक दीपक के तेल में डुबा दिया जाता है.दीपक जलता रहता है.सावधानी इस बात की बरती जाती है कि उस कौड़ी को कोई न ले जाये.ऐसा समझा जाता है कि जो उस कौड़ी को जेब में रख कर जुआ खेलने जाता है,वह जीत कर लौटता है.दशहरा के अवसर पर कन्याएं अपने घर के दरवाजे के पास गोबर से देवी की प्रतिमा बनाती है,और उसे कौड़ियों से सजाती है.गोवर्द्धन पूजा के अवसर पर भी गोबर से गोवर्द्धन की जो मूर्ति बनाई जाती है,उसे भी कौड़ियों से सजाया जाता है.

विवाह के अवसर पर भी कौड़ी को महत्वपूर्ण माना जाता है.वर-वधु के कंकण में कौड़ी बांधी जाती है.मंडप के नीचे जिस पट्टे पर वर-वधु बैठते हैं,उस पर भी कौड़ी बांधी जाती है.मंडप के नीचे कलश में अन्य वस्तुओं के अतिरिक्त कौड़ी भी डाली जातीहै.इस देश के हर प्रान्त में कौड़ी का प्रयोग अलग-अलग तरीके से होता है.ओड़िसा में विवाह के अवसर पर वधु के माता-पिता वधु को एक टोकरी भेंट करते हैं जिसे ‘जगथी पेडी’कहते हैं.इस टोकरी में रोजमर्रा के काम आने वाली हरेक वस्तु होती है,जिसमें कौड़ी जरूर होती है.आंध्र प्रदेश में भी यही रिवाज है.वहां इस टोकरी को ‘कविडा पेटटे’ कहा जाता है.

कौड़ी हमारे जीवन के प्रत्येक कार्यकलाप से जुड़ी हुई है.मनुष्य इसकी पूजा करता है,तो इससे श्रृंगार भी करता है. इससे जुआ खेलता है तो इससे औषधि भी बनाता है.

इस बात के प्रमाण हैं कि आदि काल में भी कौड़ी बेहद मूल्यवान एवं महत्वपूर्ण थी और लोग इसे सहेज कर रखते थे.विश्व भर में जहाँ-जहाँ भी ऐतिहासिक खुदाइयां हुई हैं,वहां कौड़ी अवश्य मिली हैं.

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