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जो न मिले सुर

कहना है
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कई साल पहले दूरदर्शन पर एक संगीतमय विज्ञापन राष्ट्रीय एकता को प्रतिबिंबित करती नजर आती थी. ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’, अलग-अलग विधाओं के चर्चित चेहरे ,फनकार, विभिन्न प्रान्तों के, विभिन्न भाषाओँ, बोलियों में प्रस्तुत एक ही थीम पर गीत.सच में कितना अच्छा लगता था.स्कूली बच्चों ने टी.वी. देख देख कर राष्ट्र गान की तरह रट लिया था.पहली पंक्ति शुरू होते ही आगे की लाइनें खुद ब खुद दोहराए जाने लगते.सच में,विविधता में एकता को दर्शाती कितनी सुन्दर रचना.

पर, अब लोगों के सुर आपस में नहीं मिलते.प्रधान मंत्री के सुर अलग तो अन्य मंत्रियों के सुर अलग-अलग.एक ही पार्टी में सभी के सुर अलग-अलग.कोई बटला हाऊस मुठभेड़ को सही ठहराता है तो कोई इसमें साजिश ढूंढता है.कोई पुलिस अधिकारी की शहादत को याद करता है तो कोई इसे झूठा इनकाउंटर मानता है.मंत्रिमंडल के सदस्य संविधान की शपथ लेते हैं,लेकिन उसी संविधान को ठेंगा दिखाते नजर आते हैं.चुनाव की वैतरणी पार करने के लिए पद और गोपनीयता के लिये गये शपथ की धज्जियाँ उड़ाते नजर आते हैं.

गुणीजन इसे आंतरिक लोकतंत्र या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कह सकते हैं.लेकिन एक ही मसले पर सुर का न मिलना……….. बाहर की बात तो जाने दें ,घर में ही लोगों के सुर आपस में नहीं मिलते.एक ही परिवार के पाँच सदस्यों के सुर आपस में नहीं मिलते.सबों के सुर अलग-अलग सुनाई देते हैं.कोई राग मालकौंस में आलाप ले रहा होता है तो दूसरा राग भैरवी में.लब्बोलुवाब यह कि यहाँ पर भी ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ सार्थक होता दिखाई न पड़ता.

संगीतकारों और गायकों को तो सुर मिलाने की खासी जरूरत पड़ती है.उनका सुर न मिले तो अर्थ का अनर्थ हो जाये.सो, सुर तो आपस में मिलाने ही पड़ते हैं.जाति,भाषा,धर्म की राजनीति सभी को आपस में सुर मिलाने ही नहीं देती.कई लोगों के सुर की तो अलग ही बात है.कई बार खुद ही लोगों के सुर बदले-बदले नजर आते हैं.

सो,हम तो इतना आशा कर ही सकते हैं कि…………

जो मिल जाएँ
तेरे मेरे सुर
जहाँ बदल जाये
न जाति औ धर्म की
राजनीति हो
न नफरत और घृणा की
बस प्रेम और सौहार्द की
फसल लहलहाए.

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